जब महंगे कपड़े ड्राई क्लीनिंग में खराब हो जाते हैं तो उपभोक्ता अक्सर असहाय महसूस करते हैं। दरअसल, इस मामले मंे तो कई उपभोक्ताओं को अपने कानूनी अधिकारों के बारे में पता भी नहीं रहता है। लेकिन उपभोक्ता अदालतों द्वारा समय-समय पर दिए गए फैसलों का विश्लेषण दर्शाता है कि ऐसे मामलों में उपभोक्ताओं के लिए मजबूत कानूनी सुरक्षा और मुआवजे के लिए स्थापित मिसालें मौजूद हैं।
दायित्व और मुआवजा
उपभोक्ता अदालतों ने क्लीनिंग प्रोसेस में पहुंचे नुकसान के लिए अनेक बार ड्राई क्लीनर्स को जिम्मेदार ठहराया है। स्नो एन व्हाइट ड्राई क्लीनर्स बनाम जे.एम. जेम्स (2011) मामले में केरल राज्य आयोग ने एक नए ब्रांडेड सफेद शर्ट, जिसकी कीमत करीब 3,000 रुपए थी, की ड्राई क्लीनिंग के बाद काले धब्बे पड़ने पर 5,000 रुपए का मुआवजा देने का आदेश सुनाया था। आयोग ने ड्राई क्लीनर के फिर से धुलाई करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
हालांकि यह भी ध्यान रहें कि मुआवजे की राशि इस बात पर निर्भर करती है कि खराब हुआ कपड़ा कितना पुराना था और उसकी स्थिति क्या थी। दशमेश ड्राई क्लीनर्स बनाम गीतेशांजलि नायर (2000) मामले में चंडीगढ़ के केंद्र शासित प्रदेश आयोग ने एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की। उसने फैसला सुनाया कि तीन साल पुरानी साड़ी के लिए उसकी असली कीमत के दो-तिहाई मुआवजे का भुगतान उचित होगा। इसके अलावा आयोग ने यह मानते हुए कि समस्या का समाधान करने के लिए बार-बार चक्कर लगाना उपभोक्ता के लिए अतिरिक्त असुविधा पैदा करता है और इसलिए मानसिक उत्पीड़न के लिए 500 रुपए भी देने के निर्देश दिए।
डिस्क्लेमर से दायित्व मुक्त नहीं
ड्राई क्लीनर्स अक्सर बिलों और रसीदों पर डिस्क्लेमर देकर अपनी जिम्मेदारी सीमित करने की कोशिश करते हैं। हालांकि यह स्पष्ट है कि ऐसे डिस्क्लेमर उन्हें पूरी तरह उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं कर सकते। न्यू वे मशीन ड्राईक्लीनर्स बनाम मोहम्मद अाफताब आलम (2009) मामले में झारखंड राज्य आयोग ने ड्राई क्लीनर को एक सूट की अनुमानित कीमत का 50 फीसदी भुगतान करने का निर्देश दिया। यह सूट पहले ड्राई क्लीनर द्वारा खो दिया गया था और बाद में केवल अदालत के हस्तक्षेप से मिला।
सेवा में कमी साबित करना
पुष्पा बुरी बनाम चावला ड्राई क्लीनर (1997) मामले में चंडीगढ़ के केंद्र शासित प्रदेश आयोग ने सबूत पेश करने (बर्डन ऑफ प्रूफ) के संबंध में महत्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किए। अदालत ने माना कि उपभोक्ता को शुरू में कपड़े की क्षति साबित करनी होगी, लेकिन एक बार जब कपड़े का रंग फीका पड़ने या कपड़े के स्ट्रैच होने की समस्या स्पष्ट रूप से दिखा दी जाती है तो अदालतें आमतौर पर उपभोक्ता के पक्ष में फैसला सुनाती हैं। आयोग ने कई मामलों मंे कपड़े की कीमत के 75 फीसदी तक का मुआवजा दिया। अदालत की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि कोई भी कार्यरत व्यक्ति बिना किसी वाजिब समस्या के उपभोक्ता अदालत में मामला दायर नहीं करेगा।
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ये कमियां स्वीकार की गईं
उपभोक्ता अदालतों ने कई विशिष्ट स्थितियों को सेवा में कमी (डेफिशिएंसी इन सर्विस) माना है, जिनमें शामिल हैं:
– कपड़ों का रंग फीका पड़ना या बदरंग हो जाना।
– कपड़े के टेक्स्चर या स्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचना।
– कपड़ों का खो जाना।
– कपड़ों की अदला-बदली हो जाना।
– दाग हटाने में नाकामी के साथ अतिरिक्त नुकसान पहुंचना।
– क्लीनिंग प्रोसेस के दौरान कपड़े का फटना, उसमें छेद होना या जल जाना।
शिकायत दर्ज कैसे करें?
सफल दावों के लिए उपभोक्ताओं को ये कदम उठाने चाहिए:
– ड्राई क्लीनिंग की मूल रसीद अपने पास सुरक्षित रखें।
– नुकसान का फोटो खींचकर दस्तावेजी प्रमाण तैयार करें।
– कपड़े की वास्तविक कीमत का सबूत (बिल, इनवॉयस आदि) रखें।
– उचित उपभोक्ता फोरम में समय पर शिकायत दर्ज करें।
– ड्राई क्लीनर के साथ हुए सभी संचार का रिकॉर्ड रखें।
– यदि संभव हो तो क्षतिग्रस्त कपड़े को संभालकर रखें, ताकि उपभोक्ता आयोग द्वारा मांगे जाने पर उसे प्रस्तुत किया जा सके। इससे केस के मजबूत बनने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।











