संविधान के 130वें संशोधन विधेयक पर सियासी संग्राम छिड़ गया है। सरकार का उद्देश्य है कि यदि कोई मुख्यमंत्री, मंत्री या प्रधानमंत्री 30 दिन से अधिक हिरासत में रहता है, तो उसका पद स्वतः ही समाप्त मान लिया जाए। फिलहाल संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। वर्तमान व्यवस्था के अनुसार, किसी जनप्रतिनिधि को सिर्फ दोष सिद्ध होने पर ही इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया जाता है। इसी खामी का लाभ उठाते हुए, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जेल में रहते हुए भी पद नहीं छोड़ा। तमिलनाडु के एक मंत्री ने भी गिरफ्तारी के बावजूद इस्तीफा नहीं दिया था और मंत्रिपद पर बने रहे।
दरअसल मौजूदा व्यवस्था विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को यह सहारा देती है कि जेल जाने के बावजूद वे अपने पद से चिपके रह सकते हैं, क्योंकि संविधान उन्हें मजबूर नहीं करता। लेकिन अब केंद्र सरकार का तर्क है कि ऐसी ‘संवैधानिक खामियों’ का दुरुपयोग रोकने के लिए कठोर प्रावधान जरूरी है।
विपक्षी दलों ने सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि यह संशोधन विपक्ष-शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को निशाना बनाने का राजनीतिक हथियार बन सकता है। आरोप यह भी लगाया जा रहा है कि सरकार विपक्षी दलों की निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करना चाहती है। विपक्ष के मुताबिक, यह प्रावधान मात्र आरोप के आधार पर सजा देने जैसा है, जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है।
जेपीसी को मामला सौंपा गया
तीनों विधेयक—
संविधान (130वां संशोधन) विधेयक,
केंद्र शासित प्रदेश सरकार (संशोधन) विधेयक, 2025,
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025—को विस्तृत चर्चा के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया गया है। समिति में न केवल सत्तापक्ष बल्कि विपक्षी नेताओं को भी अपने तर्क और आशंकाएं रखने का मौका मिलेगा। अंतिम निर्णय जेपीसी की बैठकों में गहन विमर्श के बाद ही लिया जाएगा।
सरकार बनाम विपक्ष तर्क और राजनीति-
केंद्र सरकार इसे भ्रष्टाचार-रोधी पहल बता रही है और दावा कर रही है कि यह कदम राजनीति से अपराधीकरण हटाने में मदद करेगा। वहीं विपक्ष को लगता है कि यह संशोधन संवैधानिक संतुलन बिगाड़ देगा और राज्यों की लोकतांत्रिक सरकारों को खतरे में डाल सकता है।
स्पष्ट है, यह विवाद केवल कानूनी नहीं बल्कि गहरे राजनीतिक अर्थों से जुड़ा हुआ है। सवाल यही है कि क्या ऐसा संशोधन वास्तव में लोकतंत्र को और पारदर्शी बनाएगा या फिर यह सत्ता संतुलन को तोड़ने का साधन बन जाएगा।
आगे की राह
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सच में राजनीति से ‘दागियों’ को दूर करना है, तो इसके लिए ठोस कानूनी सुधारों के साथ-साथ राजनीतिक सहमति भी अनिवार्य है। संविधान सभा ने ऐसे हालात की कभी कल्पना भी नहीं की थी कि नेता जेल में रहते हुए पद पर बने रहेंगे। लेकिन आज की राजनीति की वास्तविकता यही है।
अब फैसला इस पर निर्भर करेगा कि सरकार और विपक्ष सुधार की भावना से आगे बढ़ते हैं या यह विधेयक भी दलगत राजनीति की भेंट चढ़ जाता है। लोकतंत्र में स्थायी और सफल सुधार तभी संभव है, जब वह सर्वसम्मति से हो, न कि एकतरफा निर्णय से।











